Dreams

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Sunday, October 9, 2011

मुझे खर्ची में पूरा एक दिन , हर रोज़ मिलता है
मगर हर रोज़ कोई छीन लेता है
झपट लेता है , एंटी से !
कभी खीसे से गिर पड़ता है तो गिरने की
आहट भी नहीं होती,
खरे दिन को भी मैं खोटा समझ के भूल जाता हूँ !--

गिरेबान से पकड़ के मांगने वाले भी मिलते हैं!
" तरी गुजरी हुई पुश्तों का कर्जा है
तुझे किश्तें चुकानी हैं--"

ज़बरदस्ती कोई गिरवी भी रख लेता है , ये कह कर,
अभी दो चार लम्हे खर्च करने के लिए रख ले,
बकाया उम्र के खाते में लिख देते हैं,
जब होगा , हिसाब होंगा

बड़ी हसरत है पूरा एक दिन एक बार मैं
अपने लिए रख लूं
तुम्हारे साथ पूरा एक दिन बस खर्च
करने की तमन्ना है !!!!
गुलज़ार साहब

P.S This is one of the most close to heart poem of Gulzarsaab for me.